Tuesday 5 January 2021

दहेज प्रथा पर निबन्ध | Essay on Dowry System in Hindi


कोई प्रथा या रिवाज उसी समय तक उपयोगी है जबकि उससे कोई सामाजिक उद्देश्य पूरा होता हो । जब किसी प्रथा से जनसमूह आहत होता हो, नागरिकों को दु:ख उठाना पड़ता हो तो वह त्याज्य है ।

दहेज प्रथा भी अगज समाज पर एक बोझ बन गई है इसलिए इस बोझ को उतारकर फेंक देना ही श्रेयस्कर है । दहेज प्रथा अपने आरंभिक काल में कतिपय शुभ उद्देश्यों को ध्यान में रखकर प्रचलित की गई थी । परिवार वाले विवाह के पश्चात् अपनी कन्या को कुछ जीवनोपयोगी वस्तुएँ देकर विदा करते थे ।
इसका उद्देश्य कन्या के वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाना था । परंतु कन्या को कुछ वस्तुएँ भेंट कर विदा करना कोई बाध्यता नहीं थी कन्या पक्ष वाले स्वैच्छिक रूप से जो चाहते देते थे । उस समय इसे ही दहेज का नाम दिया गया । बाद में दहेज प्रथा का स्वरूप बदल गया ।

दहेज के माध्यम से वर खरीदे जाने लगे । प्रत्येक वर बिकाऊ हो गया । कन्या पक्ष वालों के लिए दहेज देना एक बाध्यता हो गई । लड़कों का जितना ऊँचा कुल जितनी ऊँची शिक्षा, जितना अच्छा व्यवसाय या पेशा, जितनी ऊँची नौकरी या पद, उसी अनुपात में दहेज की रकम निर्धारित की जाने लगी ।

कन्या चाहे कितने ही ऊँचे कुल की हो, कितनी ही शिक्षित, गुणवान्, चरित्रवान् क्यों न हों, मोटी रकम दहेज के रूप में दिए बिना उसका विवाह संभव नहीं । दहेज प्रथा निरंतर विकराल रूप धारण कर कन्या के माता-पिता के लिए एक गंभीर समस्या बनती जा रही है ।
दहेज के रूप में उन्हें न केवल लाखों रुपए देने पड़ते हैं, अपितु कार, मोटरसाइकिल, कलर टी.वी., फ्रिज, फर्नीचर, गहने आदि कीमती वस्तुएँ भी देनी पड़ती हैं । ऊपर से शादी में होने वाला सारा खर्च भी कन्या पक्ष वालों को ही वहन करना पड़ता है । ऐसे में उनकी कमर टूट जाती है । इतने से भी वर-पक्ष संतुष्ट नहीं होता विवाह के बाद वधू को ससुराल वालों के ताने सुनने पड़ते हैं ।

वधू को मारा-पीटा जाता है कभी-कभी दहेज के लोभी उसे जला भी डालते हैं । यदि किसी प्रकार वधू अपनी जान बचाने में सफल हो जाती है तो उसे भागकर अपने माता-पिता के घर शरण लेनी पड़ती है । उसकी स्थिति धोबी के उस कुले जैसी हो जाती है, जो न घर का न घाट का होता है ।

यद्यपि दहेज प्रथा के विरुद्ध कानून हैं परंतु व्यवहार में इसे लागू कर पाना अत्यंत कठिन है । कानून तभी अपना काम कर पाता है जब कोई उसके पास शिकायत लेकर जाता है । जबकि दहेज संबंधी अधिकांश लेनदेन गुपचुप और आपसी सहमति से होते हैं ।
कन्या पक्ष वाले भी अपनी पुत्री के भविष्य की चिंता में तुरंत कोई कठोर कदम नहीं उठाना चाहते हैं । जब पानी सिर से ऊपर आ जाता है तभी वे कानून से गुहार लगाते हैं । इसलिए यदि इस गलत प्रथा से सचमुच पीछा छुड़ाना है तो समाज को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा ।

कुछ दहेज विरोधी दोहरी नीति अपनाते हैं । जब उन्हें अपनी कन्या का विवाह करना होता है तो वे दहेज विरोधी बन जाते हैं । परतु जब उन्हें अपने पुत्र का विवाह कराना होता है तो वे दहेज के पक्षधर बन जाते हैं । हमें अपनी इस दुरंगी सोच को बदलना होगा ।
दहेज का लेन-देन एक सामाजिक समस्या है । अत: दहेज के विरुद्ध कानूनी सुरक्षा से बेहतर है सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए । इस प्रथा की समाप्ति से हमारे समाज का एक बड़ा कलंक मिट सकेगा ।

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